भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

याज्ञसेनी-2 / राजेश्वर वशिष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !

स्त्रियों के जन्म तो होते रहे हैं
स्त्रियाँ ही जन्म देती हैं उन्हें भी
सृष्टि ऐसे ही चली है युग-युगों से !

स्त्रियाँ ही राजमाताएँ,
रानियाँ पट-रानियाँ भी
और वे ही नगर-वधुएँ
एक चुप्पी-सी झलकती है
हमारे धर्म में,
चिन्तन-व्यवस्था में
न्याय क्यों नारी विमुख-सा ही रहा है ?

नलयानी मेरा नाम था
पिछले जन्म में
निषाद कुल सम्राट,
नल थे पिता मेरे
द्यूत-प्रेमी,
जो जंगलों में वनवास जीते थे
और मेरी माँ अलौकिक सुंदरी थी,
श्वेतवर्णा -- नाम दमयन्ती,
देख कर उसको
इन्द्र की भी अप्सराएँ मुँह छुपाती थीं
शुचिता से भरी वह श्रेष्ठता से पूर्ण थी
त्याग की प्रतिमूर्ति थी वह !

नलयानी सुन्दर थी, मुखर थी
माप लेना चाहती थी -- हंसिनी-सी
प्रेम का उत्ताल सागर,
अधखिली-सी कुमुदिनी थी

मौद्गल्य ऋषि से कर दिया परिणय
ऋषि यह चाहते थे
कौन सुनता बात उसकी
राज-पुत्री हो भले ही,
अन्ततः तो स्त्री ही थी

कुष्ठ-रोगी थे ऋषिश्वर,
वृद्ध थे, बीमार भी थे
प्रेम क्या अभिसार क्या
रुक्षता, दुत्कार ही था
और मेरी कुण्डली में
शुक्र भी तो अस्त ही था

कामसुख वंचित कली मुरझा रही थी
किन्तु धीरज बाँध कर अपने हृदय से
डमगाती, कर्मपथ पर
बस चली ही जा रही थी

मौद्गल्य ने देखा उसे,
अनुभव किया दुख की लकीरों को --
माँग लो वरदान कोई
कह दिया उससे

क्या माँगती बोलो किशोरी
अपने पति से इस अवस्था में ?
चिन्तित हुई वह,
जानती थी बहुत शक्ति है ऋषि में
उनके लिए युवक बनना भी नहीं मुश्किल
क्यों न सुखों को जी लिया जाए !
माँग बैठी कामसुख
और तृप्ति वासना की
वह डूब जाना चाहती थी
उन अनूठे कलरवों में !

वचन से आबद्ध थे मौद्गल्य क्या करते
पर ज़रा भी मन नहीं था
नलयानी डट कर तैरती थी
उस समन्दर में
जो थका था किसी पोखर–सा

एक दिन झल्ला उठे मौद्गल्य
अक्सर हार जाता था पुरुष उनका
शाप देता हूँ तुम्हें !
वासना जितनी लिए हो
पाँच पुरुषों को थका दोगी
बनोगी पाँच पुरुषों की प्रिया तुम
लो तुम्हें मैं भस्म करता हूँ !

इतिहास में जब भी स्वयं से हारता है पुरुष
भस्म होती है कोई नारी
नाम गिनकर क्या करोगे ?

और मैं अब याज्ञसेनी
आत्मा नलयानी की भीतर समेटे आ गई हूँ
और कितनी ही कथाएँ जुड़ी हैं जन्म से मेरे
धैर्य से सुनते रहो तुम !