यात्रा का रहस्य / सुरेन्द्र स्निग्ध
पृथ्वी के इस अज्ञात भूखण्ड से
अज्ञात तक की यात्रा का रहस्य
सुलझा न सका आज तक
एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन
टिकट खिड़की पर भारी भीड़
अनन्त तक फैली टेढ़ी-मेढ़ी कतार
इस कतार में सबसे आगे खड़ी है
मेरी पत्नी
टिकट खिड़की है अब तक बन्द
थोड़ी देर बाद ही
खट्ट से खुलती है खिड़की
भीतर से आती है एक कड़क आवाज़
कहाँ का टिकट चाहिए?
पत्नी प्रश्नाकुल नज़रों से पूछती है
मुझसे यही सवाल
कहाँ का टिकट ले लें?
एक ऐसा सवाल
जिसका जवाब आज तक
ढूँढ़ नहीं सका मैं
फिर आवाज़ आती है भीतर से
थोड़ी और ऊँची आवाज़
जल्दी कीजिए मैडम!
साठ रुपये पचास पैसे का टिकट
ले लो —
जहाँ तक ले जाएगी ट्रेन
चल चलेंगे हम !
इतने ही रुपए
टिकट खिड़की पर रखती है मेरी पत्नी
खिसियानी नज़र से देखता है
टिकट काटने वाला
खटाक् की आवाज़
एक टिकट निकलता है बाहर
कतार में हल्की हरकत होती है
टिकट लेकर लपक गई वो
ट्रेन की ओर
पता नहीं किस प्लेटफ़ार्म पर
लगी थी ट्रेन
जब तक मैं साथ के सामान उठाता
अदृश्य हो गई थी पत्नी
किसी ने बतलाया
अभी-अभी ट्रेन जो
खुलेगी
उसका प्लेटफार्म है अण्डर ग्राउण्ड
नीचे उतरने के लिए
लेना पड़ेगा आपको
नीचे उतरने वाली
जर्जर सीढ़ियों का सहारा।
साथ के सामान छोड़ दिए हैं मैंने
जैसे-तैसे अन्धेरी सीढ़ियों से
उतर गया हूँ नीचे
पहुँचता हूँ ट्रेन के नज़दीक
नज़र आ जाती है पत्नी
एक डब्बे में चढ़ती हुई,
मुझे देखकर
थोड़ा आश्वस्त हो गई है वो
अरे यह क्या!
अचानक खुल गई ट्रेन
वह भी तीव्र गति से,
लपक कर चढ़ना चाह रहा हूँ
अन्तिम गार्ड वाली बोगी में
दरवाज़े में लगे
रॉड को पकड़ कर
चढ़ना चाह रहा हूँ ऊपर
— चढ़ नहीं पा रहा हूँ
नीचे से चिल्ला रहे हैं लोग
— अरे, हाथ पकड़ कर
खींच लीजिए ऊपर
गिर जाएँगे, बहुत कमज़ोर दिखते हैं वह
तेज़ रफ़्तार में खुली है ट्रेन
इस बोगी में पहले से
खड़े कई लोग
ठठाकर हँस पड़े हैं
किसी ने नहीं बढ़ाया हाथ
गाड़ी की रफ़्तार और भी तेज़ हो गई
थी —
दहल रहा था वातावरण
और इसके ऊपर
बिजली की तरह कौंध गए थे ठहाके !