भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यात्रा के पड़ाव / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बर्फ के दो टुकड़े
साथ - साथ रहते थे
आपस के आकर्षण ने उन्हें
बहुत नजदीक ला दिया था

मिलते थे वो अक्सर
अपनी बाहरी सीमाओं के साथ
भौतिक स्तर पर यह उनका लगाव था
मिलन और उत्कट होकर पुनर्मिलन को बेचैन।

क्षण भर का मधुर सयोंग
तृप्ति न दे सका अंतस को
मादक, सरस, अवर्णनीय, अकल्पनीय
शीतल, स्निग्ध, शांति की अनुभूति।

तृष्णा बढ़ती जा रही थी
मिलन की प्यास बुझ न सकी
वह परम आनंद की क्षणिक झलक
चरम अवस्था का अद्भुत साहचर्य
एक अग्नि शिखा को जन्म दे गया।

बार बार दोहराते रहे यह क्रम
पर, ठहर नहीं पाया आनंद का परम स्रोत
कभी पल तो कभी दो पल
क्षण भर को ही स्थायित्व की अनुभूति
कुछ दूरियाँ रह गयीं जैसे कुछ बच गया हो।

यह उनका दैहिक आकर्षण,
स्थायी न हो सका
चरम आनन्द की प्राप्ति का अनवरत प्रयास
अनजाने में प्रेम को अंकुरित कर गया।

मन के धरातल पर प्रेम का पौधा पनपने लगा
जीवंतता आ गयी सम्बंधो में स्थायित्व के साथ
सब कुछ ज्यादा आकर्षक हो गया।

क्योंकि प्रेम मन के स्तर पर हो रहा था
अहंकार एवं आकर धीरे-धीरे पिघलने लगा
बर्फ अब भारहीन होकर पानी हो
दोनों अब आकारहीन एक दूसरे में विलीन हो गये
जल ने जल को पूर्णतः आत्मसात् कर लिया
न मिलन की लालसा और न विछोह की पीड़ा।

पर, यह तो एक पड़ाव है मंजिल नहीं
अभी भी बहुत कुछ तिरोहित होना बाकी था
कुछ दिनों बाद मन भी विरक्त होने लगा
आकार से निराकार की यात्रा का यह आरम्भ था
जल के प्रेम की पूर्णता ने उसे वाष्प बना दिया
धरातल पर नहीं अब वे, एक होकर
अनंत की यात्रा में हवा के साथ बढ़ चले
दो शरीर अब एक आत्मा बन गये
द्वैत भाव मिट चुका था।

दो आत्माएँ अब एक हो चुकी थीं
जिनका कोई आकर एवम् भार नहीं था
आत्मा की यह एकरसता थी
अंततः आत्मा चल पड़ी अपने अंतिम लक्ष्य की ओर
उस परमसत्ता से एकाकार होने के लिए
जहाँ से आयी थी।

एक बीज के रूप में, अंकुर फूटे
वृक्ष बने और बिखर गए फूल बनकर
फिर उसी मिट्टी में,
लोग इसे जीवन कहते हैं।

पर यह तो यात्रा के पड़ाव मात्र हैं
जैसे एक बूँद का लक्ष्य महासागर में मिलकर
महासागर बन जाना ही उसकी पहचान है
बंधन से मुक्ति तक की यात्रा को मैं जीवन मानता हूँ
लक्ष्य एक है मार्ग अनेक
परमात्मा से आत्मा का मिलन ही पूर्णता है
शेष बचता है केवल परमात्मा
अनादि, अनंत, सर्वव्याप्त
सत् चित् आनन्द।