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यात्रा के बाद घर / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
छिटक दिया जब मैंने
अनबुहरे आँगन में
दूर के पहाड़ों का
झील का
कछारों का
झीना मकरंद
खनक उठे दीवारों के बाजूबन्द ।
सोते से जाग गया अधपीला
तुलसी बिरवा
लिपट गई सीने से कमरे की
बन्दिनी हवा
थकी अँगुलियाँ छू कर
गूँज उठे इधर-उधर
अनबोले चपरासी परदों के छन्द ।
आतुर सब कहने को अपने
अलगाव की कथा
भीतर जो तैरायी बरबस
वनवासिनी व्यथा
सन्यासी दर्पण को
घर के आभूषण को
आँखों भर सौंप दिया सफ़री आनंद ।