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यात्रा यह रही जो आधी सदी की / कुमार रवींद्र

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सखी, मानें
रही सार्थक
यात्रा यह रही जो आधी सदी की

तुमने अपनी साँस में
सूरज उगाये
कनखियों की धूप में
हम थे नहाये

साथ लिक्खी
छोह की जो
याद है ना, सखी, रस की चौपदी की

साथ हमने
रचीं इच्छाएँ कुँआरी
फागुनी ऋतुपर्व की सब
पुरीं साधें थीं हमारी

सखी, हमने
संग परखी
सभी दुविधा वक्त की नेकी-बदी की