यात्रा / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
पता नहीं क्यों?
मैं सोचता हूँ सभी कुछ एक यात्रा है
और मैं इस सतत यात्रा का यात्री
हर पल यात्रा की ओर कदम बढ़ाता
मेरी आत्मा मेरी सतत यात्रा की साक्षी रही है।
न जाने कितने जन्मों की यात्रा कर चुका
और न जाने कितने जीवन शेष है?
आज का मेरा जीवन उसी की निरन्तरता है
इस जीवन की यात्रा में
यह भौतिक शरीर एक माध्यम बना है।
इस नश्वर संसार में
हमने अपनी साँसों से यात्रा पूर्ण की है
जबकि सूक्ष्म जगत की यात्रा
के लिए शरीर की आवश्यकता नही पड़ी
ये दोनों ही तरह की यात्रा के प्रकार हैं
एक यात्रा ही सच्ची है बाकी सब व्यर्थ।
हम अपने भौतिक शरीर से भी
अंदर और बाहर की यात्राएँ करते हैं
कुछ शारीरिक और कुछ मानसिक यात्रा
विचारों की यात्रा, भावनाओं की यात्रा
कल्पना की यात्रा और अपेक्षाओं की शृंखला
चाह, प्रेम, लगाव, स्वार्थ और लालच
सभी यात्राएँ ही तो हैं
जो हम दैनिक जीवन में करते हैं
कभी विचार किया
इस यात्रा का आरम्भ और अंत क्या है?
क्या यही हमारी नियति है?
यात्री की अंतहीन यात्रा !!!