भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यात्रा / निलिम कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्धेरा होने के बाद हम लोग लंगर डालकर
नाव पर बैठे थे
हमारी मुट्ठी में थी जर्जर पाण्डुलिपि
पंख फडफ़ड़ाती हुई उड़ गई थी सुरमई चिड़िया
हम सब बिना हिले-डुले बैठे थे
अन्धेरे के साथ मिलकर ।

हथेली की रेखाओं में भविष्य ढूँढ़ने के लिए
एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए थे
सूखे-मरियल से हाथों को छूकर ही समझ गए थे
गिद्धों के झुण्ड अभी नीचे उतर आएँगे ।

हमारे बीच बैठी एक औरत ने उसी समय जन्मा एक बच्चा
कोई ख़ुशी से चिल्लाया था -- यही सूर्य है"
कुछ लोग थकान में चिथड़े-चिथड़े सपनों के साथ
बड़बड़ा रहे थे
साँय-साँय हवा में किसी तरह सावधानी से
एक दिया जलाकर धीमी रोशनी में
बाहर झाँक रहा था मैं ।
देखा-खून से लथपथ कई लोगों के
जीवन की पांडुलिपियाँ पानी में बह गई हैं।

आख़िरी बार दिये की दुर्बल रोशनी में
हम देख रहे थे एक दूसरे के चेहरे
गालों पर लुढ़कते आँसुओं को किसी तरह सँभालकर ।

फिर पतवार उठा ली हमने
डरावनी ख़ामोशी के बीच भी
पानी को चीरती हुई आवाज़ के साथ
आगे बढऩे लगी थी हमारी नाव
और फिर --
विध्वंस से बची एक हरी-भरी घाटी में
नीले झण्डे उभरने लगे
हमारी आँखों के सामने

मूल असमिया से अनुवाद : पापोरी गोस्वामी