यादें नहीं / हरीश भादानी
यादें नहीं कह कहते इन्हें
कि कभी कभार ही आएं
या फिर
यूं आती जाएं
कि असल रंग ही न देख पाएं
चीजों का
तू और मैं
मौसम जैसी भी
नहीं होती ये
कि उबटन करें
चुन्नट डालें टहलें
चश्मा भी तो नहीं हैं ये
कि आंखों पर चढ़ा कर
देखते रहें
इमारतें आदमी पाण्डाल
पर कहें कुछ भी नहीं
आईना भी तो देख लेते हैं न
तू और मैं
इतनी हम-आहंग
हम-बगल लगें
कि फुरकें ये
और बोल पड़ें तू और मैं टर्र-टर्र
पांवों में फट-फट
माथे पर ईढूणी सा पोतिया
कांधों पर झूलता झरोखा
बंधा घोतिया लंगोट
कहां नहीं होती ये
तुझ-मुझ पर
तिस पर भी
खोखल मुंह मां
किए ही जाती है फिच-फिच
क्या फबे है रे बेटा
और वह.....
फूटे चूल्हे पर
गोबर से कारी लगाती चनणा
लजा जाती है नवली सी-
कैसा कड़ियल लगे है मेरा रामू
अरे वाह रे
मूमल-चनणा वाले तू-मैं
जूंए काढने ही उतारा है
अपने पर से इन्हें
कभी तूने-मैंने
लगा है न
चूंथी से पकड़
चाम उपाड़ली है किसी ने
सोचना ही छूट गया है
इनसे अलग होना
अब भी समझलें तू-मैं
और कुछ भी नहीं हैं
फकत होना हैं ये
तेरा और मेरा
इनके कहे होता है सोना
जगना जगे ही रहना
उठा देती हैं
तुझे और मुझे
एक ही लोटा सूरज उंडेल कर
भागो रिक्षा हो जाओ
ढोओ ढोते जाओ
हो जाओ कतार
बटन तकुए कलम
धिसो घूमों पीसो पिसो
बजो पीटो पिटते जाओ
पीसा-उलीचा सारा छोड़
झूलते हाथ
पहुंच जाओ उसके सामने
फूं-फूं फूंके है न चूल्हा
निकलता ही नहीं कभी
गोगिया पासा का जादू
खाओ पियो
खारा-खारा धुआं
किया भी है क्या कभी
नौ का तेरह
डूबते ही तो हैं
नाक-आंख तक तू-मैं
जूड़ी ताप न चढ़ जाए
तुझे और मुझे
ओढ़ा देती हैं धाबल रात
घुसे-घुसे
भले कलपें झुरझुराएं
फिर बता
कैसे नहीं है ये
होना तेरा और मेरा
खुर्दबीन से देखती हैं
आंत और माथे में उठती मरोड़ें
तड़-तड़ फटककर साटके
ले जाती हैं तुझे-मुझे
बोट-क्लब, कांच के आगे
जिसके पीछे रखा होता है
जमीन-से-जमीन की खाई पर पुल
महल के कबाड़खाने से
निकलवाई गई सलून
जमींदोज बाजार
बनवाने का सारा हिसाब
बढ़ा तो लें
एक ही पांव तू या मैं
सदा सुहागिन फटाकदार किरच
ऊभी ही रहती है बीच में
हाथ हिला-हिलाकर
कर भी लेते हैं जतन
भीतर जा धंसने का
फट-फूट करही लौटते हैं
अपने बिलों तक
तब ये चुप बांध देती हैं धीरे से
तुझ-मुझ पर
कि सुन लिया करें अध्यादेश
संसद से बाहर आता
बहस का छाणस ही फाक लिया करें
क्या दिखाएं
मोतियाबिंद बिलबिलाती मां को
कि गिरने पर
थूक तो रखे रह
कोई नहीं है सामने
कोरा आसमान है
मस्तूल मकबरे हैं सीमेंट के
तसला छूट जाता है
हक-हकलाती मूमल से
कें-कें हांय-हांयकर
मच चढ़े ज़िद पर
झापड़ रसीद कर
साबित करदें बाप होना
तू और मैं
या फिर होते रहते अपने ही मलबे में
डालते जाएं कचरा
अपनी सुबहों-शामों का
टीन की छत के सपने
उमर जमीन जीने का हक
बता इनमें से
एक भी खूट पाया है क्या अब तक
हांकती ही हैं न ये
तुझे और मुझे
तब आ-आ
कहां-कहां से
ला सकते हैं रुई
ठूंस लेने कानों में
किस-किस अस्पताल से
बंधवाते रह सकते हैं पट्टी
यूं ही होते रहने
यह कि ऐसा ही
होना बनाए रखने
जुड़े ही रहते हैं घाणी से
न हो जाने का डर
खा जो गया है
घाणी से छूट जाने का
एक-एक सोच
ऐसा नहीं वैसा हो जाने का
सपना भी तो नहीं आता
तुझे और मुझे
उससे भी चिपकी रहेंगी ये
ठान लिया है जिसने
फिलहाल चुप रहकर
बालिग होते ही
ठठा लेना तुझ-मुझ पर
तब तक भर के लिए आ
कहते ही रहें
आदमी है तू आदमी हूँ मैं
मजाक थोड़े है जो
एक ही जनम में
हो जाए शहतीर
तेरी-मेरी शक्ल जैसी कोई ज़िद
मार्च’ 77