भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यादें / तुम्हारे लिए, बस / मधुप मोहता
Kavita Kosh से
मचल रही हैं यूँ भली यादें, लहर-लहर जैसे झीलों में पानी,
खुली किताबों में बंद पन्नों के हाशियों पर लिखी कहानी।
क्यूँ तय किया था सफ़र हवाओं का, पतझड़ांे मंे पत्तियों ने,
सुना रहे हैं ये बूढ़े बरगद, गुज़रे मौसम की वो कहानी।
मेरी गली से गुज़र रही है, सुर्ख़ जोड़े में नवेली दुलहन,
फिर आज रात को आबाद होगी, क़स्बे की कोई हवेली पुरानी।
सुना है सरहद से लौट आए हैं, कई सिपाही छुट्टियों में,
किसी झरोख़े से झाँकेगी ताई, किसी से दादी, किसी से नानी।
ढोलकों पर थिरक रहे हैं, अमिया की डाली, सावन के झूले।
लाल मेहँदी, सुनहरे कंगन, कजरारी आँखें, और साँझ धानी।
कोई भिखारिन सुना रही थी, भूखे बच्चे को जब ये लोरी,
एक था राजा, एक थी रानी, कहाँ था राजा कहाँ थी रानी।