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यादों का मंजर / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
अब नहीं उठता धुआं
सुबह-शाम
चूल्हों से
मणेरा गाँव में।
उठता है
रेत का गुब्बार
जब दूर से आकर
गिरता है
तोप का गोला
धमाके के साथ
तब भर जाता है
मणेरा का आकाश
गर्द से।
यह गर्द नहीं
मंजर है यादों का
जो छा जाता है गाँव पर
लोगों के दिलों में
उठ कर
दूर-दिसावर से।