भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यादों की जागीर बना कर रहते हैं / श्रद्धा जैन
Kavita Kosh से
यादों की जागीर बना कर रहते हैं
अश्कों को तक़दीर बना कर रहते हैं
इंसां बनना जहाँ कठिन हो जाता है
खुद को वहाँ हम पीर बना कर रहते हैं
कमज़र्फी को खेल लकीरों का कह कर
रस्मों की ज़ंज़ीर बना कर रहते हैं
होता है जब रंग नुमायाँ दुनिया का
तब हम दिल को मीर बना कर रहते हैं
साथ गुज़ारी रातों की खुश्बू से हम
ख़्वाबों की ताबीर बना कर रहते हैं