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यादों की जागीर बना कर रहते हैं / श्रद्धा जैन

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यादों की जागीर बना कर रहते हैं
अश्कों को तक़दीर बना कर रहते हैं

इंसां बनना जहाँ कठिन हो जाता है
खुद को वहाँ हम पीर बना कर रहते हैं

कमज़र्फी को खेल लकीरों का कह कर
रस्मों की ज़ंज़ीर बना कर रहते हैं

होता है जब रंग नुमायाँ दुनिया का
तब हम दिल को मीर बना कर रहते हैं

साथ गुज़ारी रातों की खुश्बू से हम
ख़्वाबों की ताबीर बना कर रहते हैं