भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यादों की डोर / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
मेरे जीवन की गरिमा में
स्मृतियों का हाथ
इन मधुर स्मृतियों के
आगे झुकता है मेरा माथ
नियति ने काट दिये थे
मेरी उड़ान के डैने
जीवन ने जो दे डाला
वह पिया हलाहल मैंने
उस कालकूट को पीकर
टूटे पंखों से उड़कर
वह मेरी कल्पनी विहगी
आई अम्बर को छूकर
बादल आँखों में भरकर
आंचल में भरकर तारे
आँसू के जलनिधि खारे
मैं चुगती रही अंगारे
तप तप कर स्वर्ण बनी हूँ
आँसू से धुली-धुली हूँ
कविता में जीवन रस हूँ
बन शबनम धुली-धुली हूँ
झिलमिल करता जो आँसू
है मेरी आँख के तल में
जब लौट चले थे प्रेरक
झलका या यह उस पल में
यह मधुर स्मृति सा आँसू
मैं कभी न ढुलकाऊँगी
ले तरल दृष्टि करुणामयी
जीवन रस छलकाऊँगी
अनुराग असीम सुंदर है-मैं गाऊँगी, गाऊँगी
यादों की डोर पकड़ कर मैं ऊपर उठ जाऊँगी।