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यादों की बस्ती आतप से अविकल रहती है / विनोद तिवारी

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यादों की बस्ती आतप से अविकल दहती है
बरखा में आँखों से नदिया कल-कल बहती है

तुम तो थोड़े उथल-पुथल से घबरा जाते हो
धरती को देखो वह कितनी हलचल सहती है

कथा-कहानी गीत-ग़ज़ल-कविता बन जाती है
भावों की अंतर्धारा जो निर्मल बहती है

आँख देखती है फूलों का रंग -रूप केवल
रूह तो ख़ुशबू है आँखों से ओझल रहती है

शायर ही तो दुनिया का दुख-दर्द समझता है
लेकिन हर शायर को दुनिया पागल कहती है