भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यादों की महफ़िल में / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीत गए हैं
दिवस-मास औ'
बीत गए हैं पल
यादों की महफ़िल में
ढरके
नैनों से मृदु जल !

बसता है जल
कण-कण में
जल है जीवनदानी
जल से
लिक्खी जाती
जीवन की अमर कहानी

छिपे हुए इसमें
अनसुलझे
सब प्रश्नों के हल !

तुम आए थे
ख़ुद चलकर
मेरा बाग़ सजाने
आकर यों ही
चले गए
करके नए बहाने

यही बहाने
मन में मेरे
करते हैं हलचल !

पास रहो तुम
दूर रहो
सदा फूल-सा महको
भोर किरण-सा
खिल-खिल कर
गौरैया-सा चहको

यही सोचता
रहता हूँ मैं
आँखों को मल-मल !