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यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो / राम रियाज़

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यादों के दरीचों को ज़रा खोल के देखो
हम लोग वही हैं कि नहीं बोल के देखो

हम ओस के क़तरे हैं कि बिखरे हुए मोती
धोक नज़ी आए तो हमें रोल के देखो

कानों में पड़ी देर तलक गूँज रहेगी
ख़ामोश चट्टानों से कभी बोल के देखो

ज़र्रे हैं मगर कम नहीं पाओगे किसी से
फिर जाँच के देखों हमें फिर तोल के देखो

सुक़रात से इंसान अभी हैं कि नहीं ‘राम’
थोड़ा सा कभी जाम में विष घोल के देखो