यादों के पंछी उड़ते हैं / प्रदीप शुक्ल
ये जुलाई की
रिमझिम बारिश
यादों के पंछी उड़ते हैं
सोमवार की
सुबह मची है
आपाधापी घर बाहर तक
चूल्हे पर जल रहा तवा है
अम्मा की चालू है खटखट
उधर पिताजी
मंदिर में बस
जल्दी जल्दी कुछ पढ़ते हैं
कपड़े के बस्ते में
पॉलीथिन से
लिपटी हुई किताबें
साथ उसी के खुंसी हुई है
टाट की बोरी, बाहर झाँके
हाँथ लिए
लकड़ी की पाटी
सरपट मेंड़ों पर बढ़ते हैं
बारिश रुकी
पढ़ाई चालू
गोल बना कर शुरू पहाड़ा
पंडित जी के हाँथ छड़ी है
छुपते बच्चे, सिंह दहाड़ा
कच्चे बर्तन हैं,
कुम्हार की
चोटों से फूटे पड़ते हैं
हुई दोपहर
नन्हे शावक
कारागृह से छूट चुके हैं
और साथ ही सारे बंधन
उनके मन से टूट चुके हैं
झोला पाटी
फेंक अभी वो
जामुन की डाली चढ़ते हैं
ये जुलाई की
रिमझिम बारिश
यादों के पंछी उड़ते हैं।