याद आई तो याद आई बहुत / जयप्रकाश त्रिपाठी
याद आई तो याद आई बहुत,
बात से निकली हुई बातों की।
याद आई तो याद आई बहुत,
कई मुश्किल भरे हालातों की।
आँख भर आती है पढ़ते-पढ़ते,
उनके क़िस्से, कहानियाँ उनकी,
एक बच्चा था उनको थामे हुए
और कुछ एक नादानियाँ उनकी,
याद आई तो याद आई बहुत,
ख़ौफ़ खाई उन मुलाक़ातों की।
राह पगडण्डियों की मारी थी
गाँव से ऐसी उनकी यारी थी
क्या कहें, क्या सुनें, बताएँ क्या
उनकी हर चाल में दुश्वारी थी
याद आई तो याद आई बहुत,
उनके दिन की, अन्धेरी रातों की।
चाहे जैसे, भले-बुरे जो थे,
गाँव था उनमें, गाँव में वो थे
घर, फ़सल, खेत, पेड़-पौधे सब
बेचकर आए शहर रो-रो के
याद आई तो याद आई बहुत,
उनके भीगे हुए जज़्बातों की।
क्योंकि कोई न था पीछे-आगे,
एक दिन शहर छोड़कर भागे,
सो गए, घाट वाले पीपल पर
अपनी तस्वीर को टाँगे-टाँगे,
याद आई तो याद आई बहुत,
बूढ़ी आँखों की, ख़ाली हाथों की