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याद आते हैं मुक्तिबोध / भारत यायावर

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मन में कुछ न कुछ
पकता रहता है
कुछ न कुछ
चलता रहता है
एक आवाज़
उठा करती है
धीरे-धीरे
उठते हैं कई शब्द
बिखर जाते हैं
एक ख़ामोशी
पसर जाती हैं
फिर
शब्द कहीं दूर चले जाते हैं
कुछ कह नहीं पाता
फिर भी चलता रहता है मन में कुछ कुछ
कभी प्रकट होकर विकट हो जाता है

मुझे बार-बार याद आते हैं मुक्तिबोध
उनका मानसिक संसार
उनके स्वप्न की अजीब कथा
उनके राग की अजीबोगरीब हलचल
मैं उनसे दूर हूँ
और मन में पकते रहते हैं शब्द
उन शब्दों से जुड़े हुए विचार
विचारों का उद्वेलन
भावावेगों में बहते रहना
कोई न कोई रचना की रूपाकृति
का जन्म लेना
फिर धीमी आँच में पकते रहना
सूंघ सकते हो
कि यह क्या पक रहा है
आदमी है
और उसके भीतर
एक तमाशा चल रहा है