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याद आते हैं / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
बहुत याद आते हैं पिता
जिन्होंने ऊँगली पकड़ कर
मुझे चलना सिखाया
हमेशा गिरने से बचाया
उनके प्यार की छाया में
पनपती रही मैं।
मेरे लिेए ख्वाहिशों के पिटारा थे पिता
अभावों में जीते रहे
पर मेरा आँचल भरते रहे।
वटवृक्ष की तरह स्वयं तपते रहे
पर मुझे छाया देते रहे
पीड़ा सह कर भी, मेरे जीवन में
सदा मुस्काने बिखेरते रहे।
कठोर दिखने वाले पिता
मेरी विदाई पर बहुत रोए थे।
वो मेरे हीरो थे और मैं
उनकी नन्ही गुड़िया
पर आज उनकी अंगुलि
मेरी हथेली से छूट गई है
और मैं बेसहारा हो गई हूँ।
कैसे बताऊँ पिता का जाना कितना
दुखदायी होता है।
वो जादू का पिटारा टूट गया है
जो मेरे लिए खुशियों से
भरा रहता था, वो
जादूगर चला गया
और मेरा जीवन-मंच रिक्त हो गया।