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याद आते हैं / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
याद आते हैं धान और जड़हन के खेत
उनकी बालियों पर मड़राते सुग्गे
पोखर की मछलियों पर बुरी नजर
रखने वाले बगुला भगत याद आते हैं
फसलों के भविष्य पर बात करते हुए
पिता को भूलना कठिन होगा
माँ याद आती है — जो अक्सर धानी साड़ी
पहनती थी और धान के खेतों की
याद दिलाती थी
याद आते है भाई बहन — जो बारिश होते ही
छाता छोड़कर भीगने के लिए निकल जाते थे
याद आता है बचपन का वह दोस्त
जिसे कागज की नाव बनाने में महारत
हासिल थी
आगे चल कर वह मल्लाह बना
वह हमें नदी पार कराता था
तमाम कोशिशों के बावजूद मैं शहर में जाकर
मनुष्य नहीं बन सका
जो कुछ छूट चुका है, वह कितना
मूल्यवान है
यह गँवाने वाला ही जानता है