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याद का फिर कोई दरवाज़ा खुला आख़िरे शब / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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मख़दूम<ref>उर्दू के मशहूर कवि, जिन्होंने तेलंगाना आंदोलन में हिस्सा लिया था। उनकी ग़ज़ल से प्रेरित होकर ही ’फ़ैज़’ ने यह ग़ज़ल लिखी है</ref> की याद में-2

"याद का फिर कोई दरवाज़ा खुला आख़िरे-शब<ref>रात का आख़िरी पहर</ref>"
दिल में बिख़री कोई ख़ुशबू-ए-क़बा<ref>वस्त्र की सुगंध</ref> आख़िरे-शब

सुब्‍ह फूटी तो वो पहलू से उठा आख़िरे-शब
वो जो इक उम्र से आया न गया आख़िरे-शब

चाँद से माँद सितारों ने कहा आख़िरे-शब
कौन करता है वफ़ा अहदे-वफ़ा<ref>वफ़ा की प्रतिज्ञा</ref> आख़िरे-शब

लम्से-जानाना<ref>प्रेमिका का स्पर्श</ref> लिए, मस्ती-ए-पैमाना<ref>शराब के प्याले की मस्ती</ref> लिए
हम्दे-बारी<ref>ख़ुदा की महिमा</ref> को उठे दस्ते-दुआ<ref>प्रार्थना के लिए हाथ उठाना</ref> आख़िरे-शब

घर जो वीराँ था सरे-शाम<ref>शाम के समय</ref> वो कैसे-कैसे
फ़ुरक़ते-यार<ref>प्रेमिका से विरह</ref> ने आबाद किया आख़िरे-शब

जिस अदा से कोई आया था कभी अव्वले-सुब्‍ह
"उसी अंदाज़ से चल बादे-सबा<ref>हवा</ref> आख़िरे-शब"

मास्को, अक्तूबर, 1978

शब्दार्थ
<references/>