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याद की डोली उठी थी हर पहर / देवी नांगरानी

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याद की डोली उठी थी हर पहर बरसात में
जख़्म दिल के थे हरे उस चश्मे-तर बरसात में

याद की हर शाख़ पर हो ख़ुशनुमा कोई सुमन
ये ज़रूरी तो नहीं आए नज़र बरसात में

आग पानी में भी लग जाए तो कोई क्या करे
आग दिल में जो लगी हो तर बतर-बरसात में

रात-रानी जिस तरह महकाए रातों को मिरी
उस तरह महके मेरा ज़ख़्मे-जिगर बरसात में

राहतें भी कब निराशाओं का झुरमुट दे सकीं
आस बिरहन बनके भटके दर-ब-दर बरसात में

लोरियाँ गा गा के रिमझिम मुझको सहलाती रहीं
नींद आकर भी न आई रात भर बरसात में

वो शजर जिसके तले तरसा किए हम छाँव को
टूट कर ‘देवी’ गिरा था वो मगर बरसात में