भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
याद के जुगनू, मेरे हमदर्द हैं / भगवत दुबे
Kavita Kosh से
हैं यहाँ क़ातिल बहुत इंसान के
घोंटिये मत, खुद गले अरमान के
तिश्नगी को क्यों हवाले कर दिया
क्रूर संरक्षण में रेगिस्तान के
याद के जुगनू मेरे हमदर्द हैं
इनमें अंगारे नहीं अभिमान के
बेवफा अब बंद कर हमदर्दियाँ
बोझ ढो न पाऊंगा अहसान के
खैरख्वाहों की अधूरी लिस्ट है
और हैं दुश्मन अभी इस जान के
बन्द दिल की खिड़कियाँ करना नहीं
हैं नहीं अभ्यस्त हम सुनसान के
चिलमनों से यूँ न दिखलाओ शबाब
हुस्न मैं पीता नहीं हूँ छान के