भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

याद तुम्हारी आती है / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब पलकें झपका कर नभ में तारे हँसते,
 तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !


जब झूम-झूम उठते फूलों के दल के दल ,
मधुमय वसन्तश्री राग लुटाती आती है
गुन-गुन के गुंजन में वन की डाली-दाली
,सौरभ मधु से मधुपों की प्यास मिटाती है ,
अमराई की डालों से उठती कूक पिकी की आकुलता
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !
 
जब किसी द्वार पर अपनी झोली फैला कर ,
कोई अंधा भिक्षुक जिसका घर-बार नहीं ,
गा उठता कोई करुण मधुर संगीत
कि दाता जो देदे वह होगा अस्वीकार नहीं !
अभिमानी मन का मान डोल उठता है जब ,
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !