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याद नहीं आता / देवेन्द्र रिणवा
Kavita Kosh से
जैसे
याद नहीं आता
कि कब पहनी थी
अपनी सबसे प्यारी कमीज़
आख़ि़री बार
कि क्या हुआ उसका हश्र?
साइकिल पोंछने का कपडा बनी
छीजती रही मसोता बन
किसी चौके में
कि टंगी हुई है
किसी काकभगोड़े की
खपच्चियों पर
याद यह भी नहीं आता
कि पसीने में सनी
कमीज़ की तरह
कई काम भी
गर्द फाँक रहे हैं
अटाले में