भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
याद फिर से आ गयी आवारगी सोई हुई / नकुल गौतम
Kavita Kosh से
देर कल दफ़्तर से निकला, थी गली सोई हुई
याद फिर से आ गयी आवारगी सोई हुई
इक पुराना बक्स खोला, वक़्त मुस्काने लगा
चल पड़ी यादों की चाबी से घड़ी सोई हुई
रात भर ठंडी हवा से खिड़कियां हिलती रहीं,
कुछ वरक़ पलटे तो रो दी डायरी सोई हुई
हाथ हाथों में लिए अलफ़ाज़ ने अहसास के,
मुस्कुराने फिर लगी ये शायरी सोई हुई
ओढ़ कर शबनम की चादर, जनवरी की रात में
"मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई"
कम्बलों की इक दुकां है आज जिस फुटपाथ पर
ठण्ड में कल इक भिखारन मर गयी सोई हुई
रूह को जाते हुए देखा नहीं जन्नत कभी
हाँ! मगर हो चैन से मिट्टी मेरी सोई हुई