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याद से जाती नहीं वो आतताई ज़िन्दगी / भरत दीप माथुर

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याद से जाती नहीं वो आतताई ज़िन्दगी
छः गुणा बारह की खोली में बिताई ज़िन्दगी

ग़ुस्ल की ख़ातिर लगी लोगों की लम्बी लाइनें
और फटे पर्दे से करती बेहयाई ज़िन्दगी

एक मुर्ग़ा , एक बिल्ली , दस कबूतर साथ थे
मुफ़लिसी में भी मुआफ़िक थी पराई ज़िन्दगी

देख कर ऊँची दुकानों पर रज़ाई दूर से
गर्म हो जाती थी मेरी ठंड खाई ज़िन्दगी

हर सवेरा मुझ को देता था नया इक मसअला
इस तरह करती थी मेरी मुँह दिखाई ज़िन्दगी

वो पिघलती ही नहीं थी ज़ख़्म मेरे देखकर
अनसुनी करती थी मेरी हर रुलाई ज़िन्दगी

‘दीप’ फिर से कुछ पुराने दर्द ताज़ा हो गए
आज फिर से वो गुज़िश्ता याद आई ज़िन्दगी