भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
याद ही याद भर बची है अब / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
याद ही याद भर बची है अब
कितनी तन्हा ये ज़िन्दगी है अब
ख़्वाब सहरा में गुम गए सारे
नीन्द आँखों से मुल्तवी है अब
गाह मंज़िल नज़र में रहती थी
पाँव हैं और रहरवी है अब
बस्तियाँ सब हुईं सिपुर्दे ख़ाक
ख़ौफ़ आलूदा तीरगी है अब
तेरे कूचे में मैकदा था कभी
तेरे कूचे में तिश्नगी है अब