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याद है पिराई / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
हाय! हमने भूल की
जंगल की आग की
जो रौशनी कबूल की
लम्पट पवन जो बार बार
चूमने लगा
खिला खिला सा मन चमन
झूमने लगा
गंध भरमाने लगी अनंग फूल की
हमने क्या भूल की
जंगल न जाने क्यों
गुहारने लगा
जादू अनोखा क्यों पुकारने लगा
चादर सी तन गई जादुई धूल की
अनजाने भूल की
सिरफिरी हवाएं बांहों
से फिसल गई
तीर सी सनसनाती
वो निकल गई
कर्ज़ की किश्तें मगर पूरी वसूल कीं
आह! हमने भूल की।
जंगल वो क्या हुआ
जादुई वो समाँ
खिड़की झरोखे द्वार पर
बस धुंआ धुंआ
याद है पिराई जैसे अनी शूल की
हमने क्यों भूल की।