याद / जिगर मुरादाबादी
आई जब उनकी याद तो आती चली गई 
हर नक़्श-ए-मासिवा को मिटाती चली गई
हर मन्ज़र-ए-जमाल दिखाती चली गई 
जैसे उन्हीं को सामने लाती चली गई
हर वाक़या क़रीबतर आता चला गया 
हर शै हसीन तर नज़र आती चली गई
वीरान-ए-हयात के एक-एक गोशे में 
जोगन कोई सितार बजाती चली गई 
दिल फुँक रहा था आतिश-ए-ज़ब्त-ए-फ़िराक़ से 
दीपक को मेघहार बनाती चली गई 
बेहर्फ़-ओ-बेहिकायत-ओ-बेसाज़-ओ-बेसदा 
रग-रग में नग़मा बन के समाती चली गई
जितना ही कुछ सुकून सा आता चला गया 
उतना ही बेक़रार बनाती चली गई
कैफ़ियतों को होश-सा आता चला गया 
बेकैफ़ियतों को नींद सी आती चली गई
क्या-क्या न हुस्न-ए-यार से शिकवे थे इश्क़ को 
क्या-क्या न शर्मसार बनाती चली गई
तफ़रीक़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का झगड़ा नहीं रहा
तमइज़-ए-क़ुर्ब-ओ-बोद मिटाती चली गई
मैं तिशना काम-ए-शौक़ था पीता चला गया
वो मस्त अंखडि़यों से पिलाती चली गई
इक हुस्न-ए-बेजेहत की फ़िज़ाए बसीत में 
उठती हुई मुझे भी उठाती चली गई
फिर मैं हूँ और इश्क़ की बेताबियाँ जिगर
अच्छा हुआ वो नींद की माती चली गई।
	
	