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यायावर-स्त्री / रंजना जायसवाल
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मेरे भीतर से
निकल आई है
एक यायावर स्त्री
न शर्म न लिहाज़
हीं हीं, ठी- ठी करती
बात-बात पर कहकहे लगाती
बेमकसद बतियाती
सिर्फ प्यार की भाषा समझती
उच्छृंखल आवारा सी
यह आदिमानवी
जाने कब से छिपी बैठी थी
मेरे भीतर
मेरी शालीन सभ्यता का क्या होगा
उसमें यह कहाँ समाएगी?
पर रोकूंगी नहीं उसे
जो निकल आई है
बहने दूँगी कुदरती नदी –सी
महकने दूँगी आदिम फूल-सी।