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यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बेज़ार ही रहा / 'हसरत' अज़ीमाबादी
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यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बेज़ार ही रहा
बे-दर्द दिल के दर पिए आज़ार ही रहा
जिस दिन से दोस्त रखता हूँ उस को हिजाब-ए-हुस्न
अपना हमेशा दुश्मन-ए-दीदार ही रहा
ये इश्क़-ए-पर्दा-दर न छुपाया छुपा दरेग़
सीता हमेशा मैं लब-ए-इजहार ही रहा
क़ैद-ए-फ़रंग-ए-जुल्फ़ न काफ़िर को हो नसीब
जो वाँ फँसा हमेशा गिरफ़्तार ही रहा
जाँ-बख़्श था जहाँ का मसीहा-ए-लब तिरा
लेकिन मैं उस के दौर में बीमार ही रहा
गर क़त्ल-ए-बे-गुनाह था मंज़ूर यार को
मरने पे अपने मैं भी तो तय्यार ही रहा
दौरना-ए-लुत़्फ मैं तिरे ऐ मुबहविस-नवाज़
महरूम वस्ल से ये गुनह-गार ही रहा
‘हसरत’ हमेशा उस की शब-ए-इंतिज़ार में
जूँ ताल-ए-रक़ीब मैं बेदार ही रहा