भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यार ये ज़ख़्म / चरण जीत चरण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खाली बर्तन को भर भी सकते थे
तेरे ग़म से उभर भी सकते थे

बस अहद कर लिया था जीने का
वर्ना उस रोज़ मर भी सकते थे

इक मैं, इक तू थी और तन्हाई
हम कि हद से गुजर भी सकते थे

बाकी दुनिया से ख़ैर क्या ? तुझसे
थोड़ी उम्मीद कर भी सकते थे

गर मुसलसल जले नहीं होते
यार ये ज़ख़्म भर भी सकते थे