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या निशा / दिनेश कुमार शुक्ल

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निकट आती जा रही है रात रेगिस्तान की
अपरिचित स्त्री
किसी पर छा रही हो जिस तरह-
यह अन्तिम वृक्ष है
और ये रहा
घास का अन्तिम हरा तिनका
ठीक इस जगह से शुरू होता है
सहारा मरूस्थल
दूर करोड़ों वर्षों तक फैला हुआ...

देर हुई हमने जब पार की
झाड़ियाँ, कमर तक उगी पीली घास
साँपों की केंचुल से लसी पड़ी,
साँप-सी गरदन वाले बगुले
घास के बीज चुगते हुए,
देर हुई पार किये
रेल की सर्पिल पटरियाँ
दिन भर की धूप में तपी-टंच
पिघलने-पिघलने को,
झूमती निकल गयी खटारा मालगाड़ी
गन्धक छितराती हुई... अजगर,
और अब
आ रही है बिना छाया
रात रेगिस्तान की
किसी दीगर ज़माने की
दूसरे कबीले की, दूसरे लोक की रात !

कितने तो धरातल हैं ज़िन्दगी के
और हर धरातल पर एक-एक रात
घूम रही घायल बेचैन
कोई गाती-नाचती, रोती कोई,
स्तब्ध मुखर मौन शान्त क्लान्त
और ज़रूरी नहीं
कि हर रात के पास एक आकाश हो ही
या हो भी तो ज़रूरी नहीं है तारे भी हों
हो सकता है किसी किसी रात के पास कई-कई
आकाश हों,
रातों के आगे किसी की भी क्या मजाल
रातों ने दाँतों में दबा रखे हैं खंज़र
लेकिन हम जो अफ्रीका के
हमारी कुछ अलग ही बात-

कि हमारे मेरूदंड हमें पक्षियों के कुल से मिले,
और चूँकि
हमारे शरीर में घुलामिला है
सातवें आसमान पर उड़ने वाले
सेमल के बीजों का जीव-द्रव्य,
और कीट पतंगों का तो बहुत कुछ मिला हमें
आँखें, भूख, दुश्मन से बच निकलने की तरकीबें,
बिना खाये वर्षों ज़िन्दा रहने की जुगत

इस नाते
हर क़िस्म की खूँखार या पर्दानशीं रात से
हर क़िस्म की बात हम कर सकते हैं
हम इन्हें गुदगुदा सकते हैं
तोड़कर ले जा सकते हैं इनके तारे
हम बदल सकते हैं इनका भूगोल-खगोल
इन रातों के पदार्थ से हम बना सकते हैं
दिन या दुपहर या शाम या सुबह
या कोई और नया प्रहर किसी नये राग के लिए
या बिल्कुल नयी क़िस्म की अपूर्व एक और रात
हम गढ़ सकते हैं इस पदार्थ से

हमीं तो हैं वो ‘दुखिया’ जात काले-कुजात
जो अपनी अनिद्रा को बदल सकते हैं जागृति में
उगाते मरूस्थली रातों में सपनों की फसल
सपनों से हमने निर्माण किया सत्य का
रेत की नमी से बूँद-बूँद
संचय किया हमने ही
मोरक्को का मदहोश कर देने वाला शहद
कितना विस्तार भर कर
सो रही है रात रेगिस्तान की
उमस और पसीने और प्यार से तरबतर !