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या वे केवल रातें हैं / रुस्तम

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हम भी रहते हैं
आपकी इस दुनिया में
इसके कोनों-खूँजों में
सिमट-सिमटकर !

आपकी कोठियों के पिछवाड़े
आपकी कालोनियों से बाहर
और कई बार
उनके बिल्कुल भीतर भी
हम रहते हैं
नासूर बनकर !

इसी धरती के ऊपर
बीतते हैं हमारे दिन भी

या वे केवल रातें हैं?