भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
युगान्तर / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
आँधी उठी है समुन्दर किनारे
बढ़ती सतत कुछ न सोचे-विचारे,
लहरें उमड़तीं बिना शक्ति हारे
रफ्तार यह तो समय की !
मानव निकलते चले आ रहे हैं,
उन्मत्त हो गीत नव गा रहे हैं,
रंगीन बादल बिखर छा रहे हैं !
झंकार यह तो समय की !
जर्जर इमारत गिरी डगमगाकर,
आमूल विष-वृक्ष गिरता धरा पर,
बहता पिघल पूर्ण प्राचीन पत्थर,
है मार यह तो समय की !
रोड़े बिछे थे हज़ारों डगर में
नौका कभी भी न डोली भँवर में,
बढ़ती गयी व्यक्ति-झंझा समर में
पतवार यह तो समय की !
इंसान लेता नयी आज करवट,
सम्मुख नयन के उठा है नया पट,
गूँजी जगत में युगान्तर की आहट,
ललकार यह तो समय की !
1950