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युगान्तर / महेन्द्र भटनागर

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आँधी उठी है समुन्दर किनारे

बढ़ती सतत कुछ न सोचे-विचारे,

लहरें उमड़तीं बिना शक्ति हारे

रफ्तार यह तो समय की !

मानव निकलते चले आ रहे हैं,

उन्मत्त हो गीत नव गा रहे हैं,

रंगीन बादल बिखर छा रहे हैं !

झंकार यह तो समय की !

जर्जर इमारत गिरी डगमगाकर,

आमूल विष-वृक्ष गिरता धरा पर,

बहता पिघल पूर्ण प्राचीन पत्थर,

है मार यह तो समय की !

रोड़े बिछे थे हज़ारों डगर में

नौका कभी भी न डोली भँवर में,

बढ़ती गयी व्यक्ति-झंझा समर में

पतवार यह तो समय की !

इंसान लेता नयी आज करवट,

सम्मुख नयन के उठा है नया पट,

गूँजी जगत में युगान्तर की आहट,

ललकार यह तो समय की !

1950