भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युगारम्भ की वे सुन्दरियाँ / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझको चकित मुदित करती हैं
युगारम्भ की विपिनवासिनी वे सुन्दरियाँ
जीवन के प्यासे मरु में जो जल की घूँटों के समान थीं!
जो चुम्बन के लिए दिया करती थीं अपने होंठ रसीले
स्वेच्छापूर्वक सहज भाव से, ख्ुाले हृदय से
नृत्यकुशल प्रिय नवयुवकों को,
जन के स्वस्थ, गुणी तरुणों को!
श्रावण के काले मेघों-सा
जिनका प्रेम बरस पड़ता था जीवन के सूखे पौधों पर।

मेरे लिए रुचिर, सुन्दर हैं
हरे-भरे वन के अ´्चल में नित नूतन तृण चरनेवाली
स्वतन्त्रता से विहरण करती हुई मृगी-सी
अम्बर-भर में पंख खोलकर उड़नेवाली मुक्त खगी-सी
विद्रोही केशोंवाली वे हर्षोल्लासमयी षोडशियाँ
भंग न जो करती थीं तरुणों की आशा को
जिनके अन्तर के सागर में सुधा भरी थी
रोम-रोम से आलिंगित होने की जिनमें व्यथा भरी थी!
बौरी नई आम्रम´्जरियों के गुच्छों-सा जिनका यौवन,
हरिसिंगार के फूलों-सा टपका पड़ता था।

खिली हुई सरसों-सी हँसमुख युगारम्भ की वे सुन्दरियाँ
घूम रही हैं मेरी इन आँखों के सम्मुख
जो मधु से भी अधिक मधुर अपने अधरों को-

रख देती थीं प्रेममत्त तरुणों के मुख में!
जिनके लिए न था सूक्तों-मन्त्रों का बन्धन,
जिनके लिए न जाति-वर्ण का था अनुशासन!
प्रेम न करने या करने को जो स्वतन्त्र थी!
जिन्हें न कोई तरुण सदा के लिए संगिनी बना सका था!

मुझे घृणा है गृह की दासी, पाणिगृहीती कुलवधुओं से!
केन्द्रित है कर लिया जिन्होंने एक व्यक्ति में एक बिन्दु पर!
एक राम की सीता बन कर-
अपने व्यापक विशद प्रेम को!
बहुमत के कठोर शासन से,
नियम समागम के निश्चित कर,
मिला दिया है जिनने अपने लोकप्रेम को व्यक्तिप्रेम में!

मुझे घृणा है छुईमुई-सी लजवन्ती
उन कामबन्दिनी नववधुओं से।
दन्तरहित बुड्ढों के होठों में अपने कोमल होंठों को
लोकधर्म के डर से जिनने युगों-युगों से दे रखा है!
हब्शी यमदूतों के अजगर के समान जबड़ों में खिंच कर
जो विहगी-सी कसकभरी हिचकी लेती है,
नचा रहा है जिन्हें बन्दरी के समान अपने इंगित पर
रूढ़िग्रस्त जर्जर समाज का क्रूर कलन्दर!

मेरे लिए न प्रिय, रुचिकर हैं ग्रामवासिनी वे षोडशियाँ!
भौंराले बालोंवाली वे नयननन्दिनी कुलकुमारियाँ!
अपने गदराए महमह यौवन को
नव विकसित प्रत्यंग अंग को
बड़े यत्न-कौशल से जो रखती है ढक कर
लाल अंगिया, सुरँग ओढ़नी, श्वेतांशुक से जिन्हें छिपा कर
पड़ें न कहीं अचानक जैसे डाका उन पर!
आओ, तरुण-तरुणियो, आओ!
नव उमंग से भर कर आओ!
चन्द्रमुखी, श्यामा, सुलक्षिणी, मृगनयनी, पिकबयनी आओ!

तारा, मन्दोदरी, अहल्या, कुन्ती और द्रौपदी आओ!
तिमिरजाल पर तुम अपनी किरणें छिटकाओ!
देवपùिनी की धारा बन अन्तर्ज्वाल बुझाने आओ!
जग को प्रीति समर्पण करने शीतल गन्धपवन बन ओओ!
अन्धकारमय प्राचीरों की कोठरियों से,
झोंपड़ियों से, बन्द घरों के दरवाजों से,
प्रासादों के कारागारों-दीवारों से,
खुली हवा में बाहर आओ-युग की अरुण प्रभा में आओ!
वनप्रान्तर में, जल-थल के संगम-पुलिनों में,
नीलाम्बर के नीचे सरितापट पर, तीरद्रुमों में,
प्रकृति-नटी के अन्तराल से सतत प्रवाहित रसधारा में-
अवगाहन कर युगों-युगों की ग्लानि बहा दो!

अब तो सुखद स्वप्न से र´्जित भू पर ऐसा स्वर्ग बसाओ,
दो हृदयों का मिलन न होगा धर्म-रीति से जहाँ समर्थित!
नर-नारी का अन्तरंग सम्मिलन न होगा
परम्परागत संस्कारों से,
नियम-निदेशों से निर्धारित!
अविच्छिन्न सम्बन्ध न होगा जहाँ परस्पर नर-नारी में,
जाति-वर्ण-द्वार अभिनिन्दित,
मूढ़ विधानों से प्रतिबन्धित!
जहाँ स्वतन्त्र पवन-सा होगा मानव भी स्वतन्त्र निर्वाधित!
और प्रेम के लिए न होगी पाप-पुण्य की भाषा निश्चित!