युग-पुरुष / माखनलाल चतुर्वेदी
उठ-उठ तू, ओ तपी, तपोमय जग उज्ज्वल कर
गूँजे तेरी गिरा कोटि भवनों में घर-घर
गौरव का तू मुकुट पहिन
युग के कर-पल्लव
तेरा पौरुष जगे, राष्ट्र--
हो, उन्नत अभिनव।
तेरे कन्धों लहरावे, प्रतिभा की खेती,
तेरे हाथों चले नाव, जग-संकट खेती।
तुझ पर पागल बने आज उन्मत्त जमाना,
तेरे हाथों बुने सफलता ताना-बाना।
तू युग की हुंकार,
अमर जीवन की वाणी,
तेरी साँसें अमर हो उठें,
युग-कल्याणी।
तेरा पहरेदार, विन्ध्य का दक्षिण उत्तर,
तेरी ही गर्जना, नर्मदा का कोमल स्वर।
तेरी जीवित साँस आज तुलसी की भाषा,
तेरा पौरुष सतत अमर जीवन की आशा।
जाग-जाग उठ तपी तुझे
जग का आमंत्रण
विभु दे तुझको उठा
सौंप कर अमृत के कण।
तेरी कृति पर सजे हिमालय रजत-मुकुट-सा,
सिन्धु, इरावति बने सुहावन वैभव घट-सा,
गंगा-जमुना बहें तुम्हारी उर-माला-सी,
विहरित हरित स्वदेश करें, कृषि-जन-कमला-सी।
कमर-बन्द नर्मदा बने
उठ सेना-नायक।
शस्त्र-सज्जिता तरल तापती
बने सहायक।
तेरी असि-सी लटक चलें कृष्णा कावेरी,
आज सृजन में होड़ लगे विधना से तेरी।
लिख-लिख तू ओ तपी जगा उन्मत्त जमाना
जिसने ऊँचा शीश किये जग को पहचाना।
तू हिमगिरि से उठा
कुमारी तक लहराया,
रतनाकर ले आज
चरण धोने को आया।
उठ ओ युग की अमर-साँस, कृति की नव-आशा,
उठ ओ यशोविभूति, प्रेरणा की अभिलाषा,
तेरी आँखों सजे विश्व की सीमा-रेखा,
अंगुलियों पर रहे, जगत की गति का लेखा।
रचनाकाल: खण्डवा-१९२९