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युग-मुक्ति / विजयदेव नारायण साही
Kavita Kosh से
जैसे
मवेशी
अपनी त्वचा को
सिहराते हैं
एकबारगी
बूँदें शरीर से
झड़ जाती हैं
वैसे ही...
वैसे ही...