युग और कवि / महेन्द्र भटनागर
नाश का क्रन्दन भरा,
यह हार का
दारिद्रय का
दुर्भिक्ष का
अवरुद्ध पथ का
युद्ध का
मिटता हुआ,
बंधुत्व से हटता हुआ
इतिहास है, इतिहास है !
संस्कृति, कला औ' सभ्यता का
सामने मानों खड़ा उपहास है !
जब आज दानव कर रहा
शोषण भयंकर
रूप मानव का बनाये,
और उठती जा रही हैं
स्नेह, ममता की
मनुज-उर-भावनाएँ,
बढ़ रही हैं तीव्र गति से
श्वास पर हर
चिर बुभुक्षित मानवों के
दग्ध-जीवन की
विषैली गैस-सी घातक कराहें !
ध्वंस का
निर्मम मरण का,
घोर काला
यातना का
चित्र यह म्रियमाण है !
उजड़ा हुआ है अन्दमन-सा !
सिहरता तीखा मरण का गान है !
आदर्श सारे गिर रहे;
मानव बुझा कर
ज्ञान का दीपक
निविड़तम-बद्ध दुनिया
देखना बस चाहता है;
क्योंकि उसके पाप अगणित
कौन है जो देख पाएगा ?
धरा पर
'शांति, सुख, नवयुग-व्यवस्था' के लिए
वह लूट लेगा
विश्व का सर्वस्व !
लोभी ! लड़ रहा है,
कर रहा है ध्वस्त
कितने लहलहाते खेत,
मधु जीवन !
रही है मिट मनुजता ही स्वयं
मानों कि की
'हाराकिरी' भगवान ने !
है मंद जीवन-दीप की
आभा सुनहली।
युग हुआ शापित कलंकित ;
किन्तु तुम होना न किंचित
धैर्य विगलित, चरण विजड़ित !
कवि उठो !
रचना करो,
तुम एक ऐसे विश्व की
जिसमें कि सुख-दुख बँट सकें,
निर्बन्ध जीवन की
लहरियाँ बह चलें,
निर्द्वन्द्व वासर
स्नेह से परिपूर्ण रातें कट सकें,
सब की,
श्रमात्मा की, गरीबों की
न हो व्यवधान कोई भी !
नये युग का नया संदेश दो !
हर आदमी को आदमी का वेश दो !
1947