युग और गाँधी / श्यामनन्दन किशोर
तुम, रहे, मृतक मानवता
में बन जीवन!
तुम, गये, काल की आँखों
का पानी बन!
बापू, तुम आये भूपर
स्वर्ग बसाने?
या, दानवता पर
स्वयं भेंट चढ़ जाने?
हे, अन्धे युग के मलिन
मर्म के दीपक!
हे, ममता के शृंगार,
सत्य के रूपक!
तुम, नीलकंठ, पी घृणा-
द्वेष - हालाहल!
तुम, दलित जनों की
कठिन मुक्ति के सम्बल!
तुम, मानवता के तुंग
शिखर शुचि, सुन्दर,
निकले जिससे शत-शत
करुणा के निर्झर!
फोड़ते युगों के जड़
प्रस्तर अति दृढ़तर,
बह रहे बनाते कोटि
शुष्क उर उर्वर!
तुम, प्रकट हुए आर्त्तों
की मृदु वाणी से!
तुम, बने आह-दुख
के माटी-पानी से!
तुम, कलाकार, तुम
नवयुग के निर्माता!
हो गया धन्य रच
तुमको स्वयं विधाता!
‘मोहन’, वियोग में
लुटी ‘शान्ति’ की ‘राधा’!
तुम, राम-राज्य के
सपनों की मर्यादा!
(10.11.48)