युग की करवट / प्रतिभा सक्सेना
देख रही हूँ अपनी आँखों,
युग को करवट बदलते.
कितना शोर था
कीचड़ में उछलते लोग
शोर, छींटे, बौखलाहटें,
कितनी बार, कितने रूप ;
और हर बार
और, और गिरावट .
उठा था कभी
एक परिव्राजक का शंखनाद-
"नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से,
भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से;
निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।"
झकझोर दिया था जिसने जन-मानस!
वह नरेन्द्र #था .
धार वही नामाक्षर
मिल गया प्रत्युत्तर .
निकल आया
हाट से, बाज़ार से,
सामान्य ही विशिष्ट बन,
माँ के प्रकाश-स्नान हेतु.
अपरिग्रही जीवन की आरती लिए!
लक्ष-लक्ष करांकित सहस्रमाली
अश्व-वल्गाएँ सँभाल,
रथ-चक्रों से तमस् विदारता,
स्याही के धब्बे खँगारता,
रोशनाई घोल लिख दे,
नये युग का उपोद्घात!
शमित हों सारे उत्पात,
निर्मल हो गगन, वायु,
क्षिति, जल-प्रवाह.
जाग उठे नया विश्वास,
शुभमय हो, मंगलमय,
अरुणोदय का नया उजास!
(# नरेन्द्र-स्वामी विवेकानन्द)