युग के झंझावातो में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
गीत चाँदनी के गाये हैं
हँसते हुए प्रभातों में। 
अब जीवन का गाँव जी रहा
उजड़े रिश्ते नातों में। 
आग प्रवासी हुई मन्द हो 
चूल्हो की हड़तालों में, 
इधर आँख से उधर मेघ से, 
जल बरसे बरसातों में। 
खिल खिल करती हुई झुर्रियाँ
चमक उठी यौवन में ही 
दोपहरी के, महँगाई के, 
कठिन कुठाराघतों में। 
बदली बदली, हवा प्रखर 
दूषण की है तलवार लिये 
भयाक्रान्त नैतिकता लगती
युग के झंझावातों में। 
दोहन हुआ अनैतिक दिन दिन
नये नये श्रंगार लुटे 
कहाँ रह गयी है वह सुषमा
प्रकृति, प्रिया के गातों में। 
नष्ट हुई युग पतझारों में
वट ममत्व की शीतल छाया 
कहाँ रह गया है अपनापन
जन जीवन के खातों में। 
भूल गये सब मर्यादाएँ
स्वेच्छाचारी बने हुए 
संस्कारों की छतें उड़ाकर
हम जीते है छातों में। 
प्रगतिशील है अहम भाव अब
 'इदन्नमम्' अति दुर्लभ है 
कैद हुए हम घोर संकुचित 
वैचारिक आहातों में। 
स्वयं साधना है यह जीवन, 
इसको तो हम भूल गये 
भटक गये हम तामझाम में, 
रंगारंग जमातों में।
 
	
	

