युद्ध का अध्यात्म-अर्थ / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
ज्ञानी लोग अवर जग जाना। दुर्मति परयो दंत नहि आना॥
तब लगि काज सरे नहि भाई। दुर्मति दानव दूरि नहि जाई॥
मरि असुर भौं ठाढ कुमारा। करि अस्नान जपै कर्त्तारा॥
कह मैना अब चलहु तुरन्ता। भयउ प्रसन्न प्रगट भगवन्ता॥
सुनु मैना मोहि रहो न जाई। सिद्धि गोटिका परयो भुलाई॥
दंड धारि दूनो मिलि हेरा। कतहुं न पाय खोज तेहिकेरा॥
विश्राम:-
हर्ष मांह भौ विस्मय, कठिन विधाता कीन।
कुंअर चित चिन्ता बहुत, जनु फणि मणि हरि लीन॥117॥
चौपाई:-
कहयो कुंअर मैना सुनुवाता। अब मोहि भौ विपरीत विधाता॥
निराधार मंह दीन अधारा। सो अब हर लीन्हो कर्त्तारा॥
राजपाट तजि चल्यों विदेशा। तब कछू मो मन मो न कलेशा॥
पर्वत युद्ध महारन भयऊ। तब जियमें कछु शोच न कयऊ॥
जाके वलमो तुहर मेराऊ। उतरत उदधि विलम्ब न लाऊ॥
विश्राम:-
अस साथरि हरि लीन जिन, जानत हों जिय मांह।
जा कारन इतना कियो, ताको मारग नाहि॥118॥
चौपाई:-
कह मैना सुनु राजकुमारा। मनमों सुमिरो श्रीकर्त्तारा॥
जिन पर्वत सों दिन मोकलाई। हम तुम विछुरे दीन मिलाई॥
अब पुनि पार समुद्र ले आऊ। यहि दानव सेती जस पाऊ॥
चलते सोंप्यो जा कहे साजा। सो प्रभु करि हे आगिल काजा॥
चलो दुवो निज मन समुझाई। पसरी वात देशमंह आई॥
विश्राम:-
जूझयो दानव कण्टका, निर्भय भौं सब लोग।
राहु ग्रसित जनु रवि शशी, मैं गो उग्रह योग॥119॥
चौपाई:-
ज्ञान देव तंह भूपति भारी। नगर उदयपुर को अधिकारी॥
चहुं दिशि सो योजन परमाना। सुरनर मुनि मन करहिं वखाना॥
चलि वाहर पुनि पहुंचे तांहा। बैठा राव उदयपुर मांहा॥
सुनि कंह राव हरष उर भारी। चिहुंकि उठा सुनि वात सुखारी॥
वहुत कृपा कीन्हा विधि आजू॥...
विश्राम:-
द्रव्य अनेक लुटायऊ, दियो दुखीजन दान।
गीत नृत आनन्द वहु, बाजै विविध निशान॥120॥