युद्ध के बाद की कविता / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन
इतनी बार ध्वस्त हो चुकी हूँ
फिर भी ध्वस्त होने की आदत नहीं पड़ी।
आज भी बड़ी तकलीफ़ होती है
ध्वस्त होने में बड़ी तकलीफ़ होती है।
हरेक अंत से, देखो, उस मृत्यु से मैं लौट रही हूँ
जन्मलग्न की ओर
जी जान से लौट रही हूँ
घुटनों और सीने के बल घिसटती।
इतनी बार, इतनी बार मरती हूँ
देखो, फिर भी मैं मृत्यु पर विश्वास नहीं करती
लड़ाई के मैदान में टटोलती फिरती हूँ चेहरे
झरे हुए चेहरे।
माँ और पिता के चेहरो, संतानो के चेहरो, उठो --
लड़ाई ख़त्म हो गई है।
अगली लड़ाई से पहले
हम फिर से गढ़ेंगे नई बस्तियाँ
हम फिर से करेंगे प्यार।
आदिगन्त तक फैले खेतों में
हथियार बोकर उगाएँगे धान की फ़सल।
मैं इतनी बार झुलसी हूँ
बही हूँ कितनी ही बार
फिर भी देखो मैं अब भी नहीं भूली
कि ध्वंस के बाद भी इन्सान
किस प्रकार जीतता है...