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युद्ध के बाद / प्रतिभा सक्सेना

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ऋषि मन में दोहरा गये वही घटनायें, शिव स्थापन फिर सेतु सिन्धु पर बँधना,
संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व काश, रख पातीं, मन में जागी थी सुन्दर एक कल्पना।

संभव न हुआ यह, हुआ बहुत भीषण रण, विश्वास राम को था कि वही जीतेंगे,
कुल-द्रोही भाई इधर आ मिला जब से, आश्वस्त कि राक्षस-कुल का अंत करेंगे।

फिर साम-दाम के साथ नीति अपनाई- ईश्वर हैं राम, जन्म से ही अवतारी,
माया और राम साथ मिल जायें दोनों, तो लाभ न ले ऐसी किसकी मति मारी?

ऋषि सोच रहे थे- रावण जैसा पण्डित विज्ञान-ज्ञान में जो था परम विलक्षण,
विद्याओं में निष्णात, कला का मर्मी, अप्रतिम शौर्य, फिर साहस क्षमता अनुपम!

आवेश और आवेग सभी में होता, अतिशयता पूरित भोग-वृत्ति ले डूबी,
लोभी भेदी ने ही लंका को ढाया, हो गया सहोदर ऐसा बंधु विरोधी।

मन ही मन टूटा भ्रातृ-द्रोह से लेकिन, रावण वीरोचित मृत्य पा गया रण में,
निष्ठा के भक्ति, नीति के विद्वत्ता के, कितने प्रमाण वह छोड गया इस जग में!

उपदेश-
"भइया ने भेजा है मुझको, "
बोले लक्ष्मण करके प्रणाम,
"उपदेश नीति का ग्रहण करूं, हे पूज्य परम, पंडित महान्!"

मँडराती सिर पर मृत्यु किन्तु रावण के स्वर भास्वर,
मुख पर अपार सन्तोष भले ही जीता हो न समर,
"यह नीति, कि करने वीर शत्रु का अभिनन्दन, प्रिय लक्ष्मण, राम स्वयं आते जामाता बन!
सर्वज्ञ नहीं होता कोई, मानवता से बढ़ और न कुछ, मानव ही बने रहें हम सब उपने विवेक को जाग्रत रख!

अब यहाँ वीरता से सम्मुख आकर न चुनौती देगा नर, अबला नारी पर शौर्य दिखा, यों अंग-भंग कर कुत्सित कर,
यदि चन्द्रनखा की भाँति भेजता मैं विरूप सीता को कर, तो उपनी ही आँखों में तुच्छ बना रहता मैं जीवन भर!

क्यों सर्वमान्य बनना चाहे, अपने को सर्वश्रेष्ठ कहकर, सन्तोष नहीं क्यों हुआ उन्हे मानव थे मानव ही रह कर?
अच्छा, लक्ष्मण, आशीष उन्हे देकर कहना यदि सीख सकें तो नारी की मर्यादा क्षयित न हो ऐसा उद्योग करें!

उनसे कहना लक्ष्मण कि मनुज को दीन अकिंचन यों न करें, है कर्म-भोग अनिवार्य जहाँ वे व्यर्थ कृपा का दम न भरें,
क्यों दीन-अकिंचन बने मनुज? ऊर्जस्वित रहे कर्मण्य बने, अपने विवेक से निर्णय ले जो उचित स्वयं को लगे, करे,

सबकी अपनी जीवन-शैली सबका अपना जीवन-दर्शन, सबकी अपनी संस्कृति औ रुचि, यों चलता रहे जगत का क्रम!
अब बिदा बंधु, इस मृत्यु-काल मेंप्रिय पत्नी से तो मिल लूँ, जीवन भर साथ दिया जिसने अंतिम संभाषण तो कर लूं!

चीत्कार घोर गूँजा विलाप के स्वर लक्ष्मण के कान पड़े नारी मण्डल, स्वप्नाविष्टा-सी मन्दोदरि वे लौट पडे!
वह मुख रावण की रानी का लक्ष्मण का हृदय विदीर्ण हुआ,वह तेज कान्ति मय आनन यों पाण्डुर, विवर्ण श्री-हीन हुआ!
टूटी-लतिका सी गिरी, शीश रावण के वक्षस्थल पर था, वस्त्रों की भी सुधि नहीं, मुक्त वह केश-जाल धरती पर था!
"तुम जैसा पूज्य पुरुष पा कर सार्थक मेरा हो गया जन्म, विश्वास प्रेम पाया अपार अब शून्य-प्राण, तुम बिन जीवन!"

अति प्रेम पूर्वक रावण ने प्रिय पत्नी को दुलराया था, रानी का मुख रावण के मुख के पास और झुक आया था।
 "तुम जैसा उच्च-कोटि नर को पति पाकर बड़भागिन हूँ मैं, सम्मान स्नेह इतना पाया, " फिर आगे के स्वर डूब गए।
"पौरुषमय मृत्यु मिली मुझ को तुम करना किंचित शोक नहीं, जीवन भी सफल रहा मेरा विधि को भी कोई दोष नहीं।
था इन्द्रजीत सा वीर पुत्र, सीता जैसी पुत्री पाई, तुम जैसी शुभचरिता पत्नी गुण-गरिमा पूरित मन भाई!"

बोला दशकंधर, प्रिये, जन्म-जन्मान्तर तक मैं हूँ तेरा,
भोगों के प्रति आसक्त रहा इसलिए नाश ने आ घेरा!
अति शान्त भाव से नैन मूंद,
लंकापति बोला- "जय शंकर",
मस्तक से निकली प्राण-ज्योति,
हो गई लीन नभ में जाकर!

मन्दोदरि का सिर उठा,
नयन-भर देखा रावण के मुख को,
फिर प्रिया प्राणपति के तन पर,
गिर गई शिथिल, जीवन-गत हो!

सिर झुका हुआ,वाल्मीकि मौन बैठे हैं, 'क्या इसीलिये था बना पुरोहित रावण?
दो संस्कृतियों के बीच, काश पथ बनता, पर सेतु बन गया महानाश का कारण!
लंकेश-सुता औ दशरथ के सुत राघव, गठबंधन हो यह विधना ने लिक्खा था,
जामाता पा मन्दोदरि हृदय जुडाती, पुत्री की बिदा काश, रावण कर पाता!

संबंध रक्त के कौन तोड़ पाया है, कुल-वंश श्रेष्ठ रावण भी तो था भूसुर,
किसलिये युद्ध फिर और शत्रुता कैसी, उस कुल की कन्या यहाँ वधू के पद पर!
छल मद व्यभिचार नहीं है क्या देवों में, असुरों की भी तो पञ्चभूत की काया,
हो सके न उनसे श्रेष्ठ, शक्तिधर कोई, इस हेतु राम को माध्यम गया बनाया!
जो सिर्फ शत्रुता-निर्वाहन हित निर्मित, टूटेगा वह, निश्चय ही नहीं रहेगा,
जो बिखर गये उन संबंधों की गाथा, हर आगत युग से टूटा सेतु कहेगा!'