भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युद्ध / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फुर्तीले शरीर और शानदार घोड़े
दिशाओं में सिहरन पैदा करते हुए
एक इशारे से जंग की ओर दौड़ते हुए
और बिल्कुल साफ-सुथरी वेशभूषा लड़ाकों की
सभी की एक जैसी, वातावरण में प्राण फूंकती हुई
सभी एक जैसे कि एक गिरे तो
दूसरा ठीक उसी तरह से उठ खड़ा हो
वे दौड़ते हैं जैसे कोई भयानक आग को रोकने को
सभी तरफ आग ही आग
और यह शरीर से निकलती युद्ध की आग
प्राण ले लेती है अपनों के ही
युद्ध खत्म होने पर बच जाते हैं सिर्फ अवशेष,
थके हुए घोड़े और रोष से पीडि़त वेशभूषा वाले लोग
किसी में कोई चमक नहीं अब
अब आंखें उन्हें देखने से भी कतराती हैं।