युध्द- एक मन: स्थिति / नंद चतुर्वेदी
फिर एक घृणा का अन्धा सर्प
उन्मत्त हो गया है
अब हमें फिर चन्दन की घाटियों में
बारूद बिछानी पड रही है
हम इस सन्ताप को कभी नहीं भूलेंगे
लोगों को आकाश की तरफ
देखने में बहुत दिन लगेंगे
वे बहुत दिन तक न तो पुल बनाएंगे
और न पार करेंगे
खाइयां हो जाएगी
बहुत दिनों बाद लगेगा
कि कोई मौसम बदल गया है
झील फिर से नीली हो गई है
हरसिंगार फिर से झर रहा है
शहर मौसमी उदासी में नहीं
मौत के तहखाने में उतर गए हैं
रेस्तरां में वे धुनें नहीं बजतीं
न वे कहकहे लगते हैं
दिनभर लोग कयास करते हैं
मृत्यु और ध्वंस के आंकडे उन्हें याद हैं
युध्द में कोई नहीं हारता
किन्तु बाद में, बहुत बाद में
आदमी एक केंचुए की तरह लगने लगता है
टूटे हुए पुलों पर शहर
खडे-खडे प्रतीक्षा करते हैं
एक अंधे, आस्थाहीन भविष्य की।