भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
युवकसँ - २ / कांचीनाथ झा ‘किरण’
Kavita Kosh से
हो पैघ काज केहनो उत्साहकेँ न हारी,
औचित्य बुझि पड़ै जँ राखी प्रयास जारी।
आरम्भ कार्य कै कऽ मुख नै कदापि मोड़ी,
पथमे पड़ल रहौ किछु कोमल कली कि रोड़ी।
अपना बुतेँ हुए जँ नहि आनकेँ अढ़ाबी,
कर्त्तव्यनिष्ठ भै कऽ पुनि आनकेँ पढ़ाबी।
थिक धर्म सब युवककेर निज देश जाति सेवा,
होएत प्रथम कठिनता, परिणाम किन्तु मेवा।
विश्वास निज श्रमक दृढ़ जाधरि रहत हृदयमे,
दासी बनलि सफलता रहतीह पैर धयने।
यावत् रुधिर गरम अछि चलु ता सुकाज कयने,
पुनि कै सकब ‘किरण’ की जर्जर शरीर भएने।