यूँही नहीं हम बोलते जाते ये अपनी मजबूरी है / मनमोहन 'तल्ख़'

यूँही नहीं हम बोलते जाते ये अपनी मजबूरी है
जूँही कुछ कह चुकते हैं लगता है बात अधूरी है

सब अपनी अफ़्वाह बने हैं अस्ल में क्या थे भूल गए
जीने की जो सूरत है सो ये भी आज ज़रूरी है

दुनिया मेरी ज़िंदगी के दिन कम करती जाती है क्यँू
ख़ून पसीना एक किया है ये मेरी मज़दूरी है

अपने बाद ही दुनिया में ठहराव जो आए तो आए
जब तक हम ज़िंदा हैं तब तक हर इक दौर उबूरी है

ढूड रहे हैं किस के लोग शिकारी जैसी नज़रों से
सफ़-दर-सफ़ मौजूद हूँ मैं तो हर इक सफ़ तो पूरी है

सब इक दूसरे को नज़रों से बस ये दिलासर देते हैं
है तो हम सब पास ही बस अंदर की ये इक दूरी है

इतनी सारी आवाज़ों में शायद सुनने वाले को
बस इतना ही याद रहेगा मेरी बात जरूरी है

कोई बहाना मिल जाए तो हाथ नहीं हम आने के
देर ये है चल देने में तैयारी तो पूरी है

‘तल्ख़’ हमारे होष के आलम का है रंग-ए-सुख़न कुुछ और
जिस पर वज्द में है इक दुनिया वो तो गै़र शुऊरी है

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